Wednesday, April 11, 2018

डर

प्रेम तो निस्वार्थ निश्छल होके खुद को खोना है,
तो फिर प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम के न मिलने का
कैसा  ये डर  का होना है,

नवजनित पुत्र से डर है माता पिता को ,
कहीं ये बड़ा होकर वृद्धाआश्रम ना छोड़ आये,
नवजनित पुत्री से डर है माता पिता को,
कहीं युवावस्था तक पहुंचते ये अपनी इज़्ज़त बलात्कारियों के पास न छोड़ आये...

पढ़ने लिखने वाले छात्र छात्राओं को डर है
कहीं अनुतीर्ण न हो जाएं,कहीं मेधा सूची से बाहर न हो जाएं,
अभिभावको को डर है कहीं असफलता से मेरे बच्चे अपना जीवन न खो जाएँ..,

विवाह के पहले परिवारों को डर है,आनेवाली बहु हमारे संस्कारों का वहन कर पाएंगी
और विवाह करती लड़कियों को डर है,की क्या वो आनेवाले जीवन मे दहेज की प्रताड़ना सहन कर पाएंगी

जंगल के नुमाइंदों को डर है,कहीं ये आधुनिकता हमारा आशियाना न निगल जाए,
धुर्वों पर जमी बर्फ को डर है कहीं  प्रदूषण से हमारा अस्तित्व न पिघल जाए,

चयनित प्रशासन के प्रतिनिधियों को डर है कि कहीं जनता उनका मत न छीन ले,
चयनकर्ता जनता को डर है,चयनित प्रतिनिधि कहीं
उनके सारे हक अधिकार न छीन ले,

प्रेम तो निस्वार्थ निश्छल होके  खो जाना  है,
फिर ये प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम के न मिलने का कैसा डर  का होना है,
बस प्रेम में लिप्त होके हम पूरी समर्पण से अपनी कर्तव्यनिष्ठता से अपनी सीमाओं में रहेंगे,
यकीन मानिए इस सम्पूर्ण डर को अपनी काबू में करेंगें,

प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम ही होता है,
कभी देर कभी सबेर होता है......

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