मैं नारी हूँ,
अंतः मन से कभी निर्भर हो जाती हूँ,
कभी आत्म निर्भर हूँ,
मैं सृष्टी का आधा हिस्सा हूँ,
फिर भी सामाजिक व्यवस्था में,
बिना पुरुष के अधूरा किस्सा हूँ,
मेरे बिना पुरुष का अस्तित्व भी अतृप्त है,
फिर भी मैं नारी हूँ,
मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
फिर भी मैं नारी हूँ,
मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
असीम प्रेम का सागर है,मुझमे
लुटाती हूँ बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक,
कभी भाइयों के लिए,कभी पति,कभी पुत्र तो कभी पौत्र,
कभी खुद को अलग न सोच पायी,
मैं हूँ सबके लिए बस इसी बात पर जीती आयी,
अहम को भी अपना लेती हूं,
जरूरत पड़ने पर स्वाभिमान भी भूला देती हूं,
इतनी विस्तृत होकर भी सामाजिक व्यवस्था में
मेरा योगदान मेरा स्थान संक्षिप्त है..,
लुटाती हूँ बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक,
कभी भाइयों के लिए,कभी पति,कभी पुत्र तो कभी पौत्र,
कभी खुद को अलग न सोच पायी,
मैं हूँ सबके लिए बस इसी बात पर जीती आयी,
अहम को भी अपना लेती हूं,
जरूरत पड़ने पर स्वाभिमान भी भूला देती हूं,
इतनी विस्तृत होकर भी सामाजिक व्यवस्था में
मेरा योगदान मेरा स्थान संक्षिप्त है..,
पुरुष का अंतर्मन भी मुझसे ही तृप्त है,
फिर भी
मैं नारी हूँ, मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
फिर भी
मैं नारी हूँ, मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
मैं समर्पण जानती हूँ,त्याग भी करती हूँ
पाकर प्रेम पौरुष से कुशुम सी खिलती हूँ,
प्रेम में डूब जाती हूँ,और
भावनाओं से तर होकर
स्व को भूल जाती हूँ,
प्रत्युत्तर तिरस्कार भी हो तो
प्रेम न भूलती हूँ,
स्व को जानकर भी स्व को छलती हूँ
मैं दमित नही हूँ अब न कुचलित
बस असीम प्रेम ही है मेरी दुविधा जो
पाकर प्रेम पौरुष से कुशुम सी खिलती हूँ,
प्रेम में डूब जाती हूँ,और
भावनाओं से तर होकर
स्व को भूल जाती हूँ,
प्रत्युत्तर तिरस्कार भी हो तो
प्रेम न भूलती हूँ,
स्व को जानकर भी स्व को छलती हूँ
मैं दमित नही हूँ अब न कुचलित
बस असीम प्रेम ही है मेरी दुविधा जो
मेरा अस्तित्व अभी भी है संलिप्त
मेरे बिना पुरुष का आतित्व भी अतृप्त है,
फिर भी मैं नारी हूँ मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
फिर भी मैं नारी हूँ मेरा अस्तित्व संलिप्त है...
सुप्रिया "रानू"
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