Friday, April 27, 2018

मैं : विधुर

पहली  बार थोड़ा व्यक्तिगत लिखा है,बस कभी कभी शब्द रोक न पाते कुछ भावनाओं को, अपने पिता के मन: व्यथा को शब्दों में व्यक्त करने की कोशिश की है जो उन्होंने कभी कहा भी नही

मेरे सुख- दुख,मुस्कान-आँसू,
बाँटती रही ताउम्र
बन के मेरी हमकदम,
सारे फूल चुने जीवन के,
काँटो से होकर बढ़ाये कदम,
देकर थाती तीन अमूल्य धन,

छोड़कर यूँ बीच मे साथ कर गयी निर्धन ...

पुरुष हूँ, अश्रु नयनों में बांधना होता है,
तुमसे कहता था ,सब
अब सब कुछ मौन में साधना होता है,
हाथ लड़खड़ाए भी तो
उसे अपने हाथों से थामना होता है
तुम्हारे साथ से था मैं सम्पन्न
छोड़कर यूँ बीच मे कर गयी निर्धन...

देखकर चाँद अक्सर याद आ जाती है तुम्हारी,
इसे चुराकर चर्च के पीछे बैठने की बात,
यूँही खामोश तुम्हारे साथ बैठकर भी
अनकहे शब्दों में भी सुन लेती थी तुम मेरी कितनी बात

मैं मेरी बेटी की तरह नही,
जो शब्दों में पिरो लूं तुम्हारी कमी
ना ही तुम्हारी तरह जो
छुपा लूं अपने नयनों के कोरों की नमी,
मैं चुप नि:शब्द
व्यथा अपने अंतर्मन में बसा लेता हूँ,
बुढ़ापे के इन दवाइयों की तरह
तुम्हारा एहसास नस नस में समा लेता हूँ,

मैं स्त्री नही जो अपने श्रृंगार का परित्याग कर
तुम्हारे न होने का शोक मना लूं
मैं तो चाहूँ भी तो बिलख कर रो नही सकता,
परिवार के साथ पास रह कर भी मैं एकात्म में जीता हूँ
मैं ही जानता हूँ यह विरह वेदना कैसे पीता हूँ,
जानता हूँ तुमसे हुन कितना दूर,
और यह अर्थ भी की मैं हूँ विधुर 

   सुप्रिया"रानू"

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