सारी कृत्रिम रोशनियों को चीरकर,
धीमी पड़ती चाँद तारों की चमक,
अपनी नई नवेली लालिमा के साथ
आंखे मिचता सूरज देखो
कैसे गगन के आनन में अंगड़ाइयां लेता,
ठीक कर रहा है अपनी किरणों की साज सज्जा
कलियां जो बटोर कर रखी थी अपने पंखुड़ियों में सारी लज़्ज़ा,
खुल रही हैं धीरे धीरे पलकें मिचते,
लजाते शर्माते अपने यौवन के पट,
खिलकर भौंरों को लुभाकर सन्ध्या में
लोट जाना है भूपर अपने अस्तित्व को धूलित धूसरित कर
एक दिन का जीवन पूरे उमंग से जीकर..
सड़कों किनारे खुद के वजन से ज्यादा भारी
बस्तों का बोझ लिए
आंखे मिचते बस के इंतज़ार में खड़े बच्चे,
पढ़ रहे हैं जीविका के लिए संस्कारों के लिए
अर्थ के लिए व्यर्थ के लिए न जाने उन्हें नही पता है,
बस खुद को और बस्तों को ढोकर विद्यालय तक ले जाना है
और सांझ ढले ले आना है...
दुकानों को साफ करते लोग ,
आफिस की जल्दी में भागते लोग,
रसोइयों में से आती अलग अलग
छौंक की खुश्बू,
दादा दादी के टहलने योग प्राणायाम के चरण
ठंडी हवा के झोंको में इठला कर
लहराती छोटी छोटी अमिया,
और इनसब के बीच
जिसे कोई जल्दी नही है,
पेड़ की एक डाली से दूसरी पर कूदती फाँदति
कोयल और एक ही लय जो होश संभाला तबसे
आज तक सुनती आ रही
कू कु कु कु कु कु
न जाने कितना चिढ़ाया होगा मेरी आवाज के प्रत्युत्तर
में तो कितनी बार औऱ चिढ़ के बोलती थी कु कु कु...
सुबह की सैर करने का विचार
इस तपिस में सबको एक ठंडी हवा खिलाने के व्यवहार
कैसी लगी सुबह की सैर
भूल के सब ईर्ष्या सब बैर
चलो एक बार कर आते हैं रोज
ये सुबह की सैर....
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